हमारा इंडिया न्यूज (हर पल हर खबर) मध्यप्रदेश। मां शारदा देवी धाम मैहर सतना मध्यप्रदेश।जय माता शारदा, मैहर शारदा माता का एक प्रसिद्ध मंदिर है। यह न सिर्फ आस्था का केंद्र है, अपितु इस मंदिर के विविध आयाम भी हैं। इस मंदिर की चढ़ाई के लिए 1063 सीढ़ियों का सफ़र तय करना पड़ता है। इस मंदिर में दर्शन के लिए हर वर्ष लाखों की भारी भीड़ जमा होती है।मैहर की माँ शारदा , मध्यप्रदेश में चित्रकूट के निकट सतना जिले के मैहर शहर में 600 फुट की ऊंचाई पर त्रिकुटा पहाड़ी पर मां दुर्गा के शारदीय रूप श्रद्धेय देवी माँ शारदा का मंदिर है, जो मैहर देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं !
यह हिन्दुओं का बहुत ही महत्वपूर्ण, धार्मिक एवं आस्थावान स्थान है ! यहां तक श्रद्धालुजन माता का दर्शन करने उसी तरह पहुंचते हैं जैसे जम्मू में मां वैष्णो देवी का दर्शन करने जाते हैं ! मां मैहर देवी के मंदिर तक पहुंचने के लिए 1063 सीढ़ियां तय करनी पड़ती है ! महा वीर आला-उदल को वरदान देने वाली मां शारदा देवी को पूरे देश में शारदा माँ के नाम से जाना जाता है ! इस मंदिर को माता के शक्तिपीठों में से एक माना जाता है ! इसी पर्वत की चोटी पर माता के साथ ही श्री काल भैरवी, भगवान, हनुमान जी, देवी काली, दुर्गा, श्री गौरी शंकर, शेष नाग, फूलमति माता, ब्रह्म देव और जलापा देवी की भी पूजा की जाती है। पूरे भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है। माना जाता है कि गोंड शासकों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था !
शक्तिपीठ है मैहर देवी का मंदिर, जहाँ माँ सती का हार गिरा था ! मैहर का मतलब है- माँ का हार, इसी वजह से इस स्थल का नाम मैहर पड़ा !
इस तीर्थस्थल के बारे में एक रोचक दन्तकथा भी प्रचलित है ! बताते हैं कि आज से 200 साल पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जुदेव नाम के राजा शासन करते थे ! उन्हीं कें राज्य का एक चरवाहा गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था ! इस भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा रहता था ! जंगल में कई तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं ! एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहीं से आ गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई ! दूसरे दिन जब वह चरवाहा इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया, तो देखा कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर चर रही है ! तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी तब उसके पीछे-पीछे वह भी जाएगा ! गाय का पीछा करते हुए उसने देखा कि वह पहाड़ी की चोटी में स्थित गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया ! वह वहीं द्वार पर बैठ गया, पता नहीं कि कितनी देर कें बाद द्वार खुला ! लेकिन उसे वहां एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए ! तब चरवाहे ने उस बूढ़ी महिला से कहा, ‘माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ दे दों ! मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूं ! बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस चरवाहे को दिए और कहा, अब तू इस जंगल में अकेले न आया कर ! वह बोला, ‘माता मेरा तो काम ही जंगल में गाय चराना है, लेकिन आप इस जंगल में अकेली रहती हैं ? आपको डर नहीं लगता !’ तो बूढ़ी माता ने उस चरवाहे से हंसकर कहा- बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं, में यही निवास करती हूं ! इतना कह कर वह गायब हो गई ! चरवाहे ने घर आकर जौ के दाने वाली गठरी खोली, तो हैरान हो गया ! उसमें जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे ! उसने सोचा- मैं इसका क्या करूंगा ! सुबह होते ही राजा के दरबार में हाजिर होऊंगा और उन्हें आप बीती सुनाऊंगा ! दूसरे दिन दरबार में वह चरवाहा अपनी फरियाद लेकर पहुंचा और राजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई ! उस चरवाहे की कहानी सुनकर राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का कहकर, अपने महल में सोने चला गया ! रात में राजा को स्वप्न में चरवाहे द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि यह आदि शक्ति मां शारदा है !
स्वप्न में माता ने महाराजा को वहां मूर्ति स्थापित करने का आदेश दिया और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होगी ! सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कार्य करवा दिए ! शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैलने लगी ! माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु कोसों दूरे से आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना भी पूरी होने लगी ! इसके बाद माता के भक्तों ने मां शारदा का विशाल मंदिर बनवा दिया !
मंदिर का इतिहास
मंदिर के बारे में ये भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदि गुरु शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। शारदा देवी का मंदिर सिर्फ आस्था और धर्म के नजरिये से खास नहीं है। इस मंदिर का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है।
मंदिर के पास में एक प्राचीन शिलालेख है ! वहाँ शारदा देवी के साथ भगवान नरसिंह की एक मूर्ति है ! इन मूर्तियों को नुपुला देवा द्वारा शक 424 चैत्र कृष्ण पक्ष पर 14 मंगलवार, विक्रम संवत 559 अर्थात 502 ई. में स्थापित किया गया था ! देवनागरी लिपि में चार पंक्तियों वाला यह शिलालेख “3.5” से 15 आकार का है ! माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 को की गई है ! मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है ! इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएँगे ! दुनिया के जाने माने इतिहासकर कनिंघम ने इस मंदिर पर विस्तार में शोध किया था ! इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया !
मंदिर क्यों होता हैं बंद
मां शारदा के मंदिर को रात 2 से 5 बजे के बीच बंद कर दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि इसी अवधि में आल्हा मां के दर्शन करने आते हैं। वह मां के दर्शन, पूजन के साथ ही उनका शृंगार भी करते हैं। इसलिए रात को 2 से 5 बजे के बीच यहां कोई नहीं ठहरता। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि जो हठपूर्वक यहां रुकने की कोशिश करता है, उसकी मौत हो सकती है।
मंदिर का आल्हा-उदल से सम्बन्ध
इस प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के सन्दर्भ में एक अन्य दन्तकथा यह भी प्रचलित है कि दो वीर भाई आल्हा और उदल, जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ भी युद्ध किया था, वे भी शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करते थे ! इन्हीं दोनों ने सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी ! इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में बारह साल तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था ! माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था ! कहते हैं कि आल्हा ने भक्ति-भाव से अपनी जीभ शारदा को अर्पण कर दी थी, जिसे माँ शारदा ने उसी क्षण वापस कर दिया था ! आल्हा माता को ‘शारदा माई’ कह कर पुकारा करता था और तभी से ये मंदिर भी ‘माता शारदा माई’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ! आज भी ये मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा ही करते हैं ! मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है, जिसे ‘आल्हा तालाब’ कहा जाता है ! यही नहीं तालाब से दो किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे !
वस्तुतः माता रानी सबकी मनोकामना पूर्ण करती हैं इसीलिए यहां श्रद्धालुओं का तांता हर वक़्त लगा रहता है
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